संत दादू दयाल




तू साँचा साहिब मेरा।
करम करीम कृपालु निहारो,
मैं जन बंदा तेरा।।

हे साहिब, आप ही मेरे असली मालिक हैं। हे दयालु, हे कृपालु, मेरी ओर निहारो। मैं आपका ही सेवक हूं।

तुम दीवान सभिन की जानो,
दीनानाथ दयाला।
दिखाई दीदार मौज बंदे को,
कायम करो निहाला।।

हे दीनानाथ, हे दयासागर आप तो सबके दिल की बात जानते हैं। आपने कृपा करके इस बंदे को दर्शन दे दिये। अब कृपया इस स्थिति को कायम रखकर मुझे निहाल करते रहें।

मालिक सबै मुलुक के साइँ,
समरथ सिरजनहारा।
खैर खुदाई खलक में खेलत,
दे दीदार तुम्हारा।।

हे मालिक, आप सारे संसार के साइँ हैं, समर्थ हैं और संसार में अपनी लीलाएं करते रहते हो। मुझे आप अपना दर्शन बराबर देते रहें।

मैं शिकस्ता दरगाह तेरी,
हरि हुजूर तू कहिए।
'दादू' द्वारे दीन पुकारे,
काहे न दर्शन लहिए।।

मैं दादू खस्ता हाल हूं, दीन हूं। आपके द्वार पर आ पड़ा हूं और आपको पुकार रहा हूं। आप तो हर जगह व्यापक हैं, तो फिर मुझे आपका दर्शन लाभ क्यों नहीं हो रहा है?



भाई रे ऐसा सतगुरु कहिये।
भगति मुकति फल लहिये।।

ऐ भाई, सतगुरु की महिमा अपार है, जिनकी कृपा से शरणागत जीव को भक्ति और मुक्ति दोनों का फल प्राप्त होता है।

अविचल अमर अविनाशी।
अठ सिध्द्वि नौ निधि दासी।।

सतगुरु किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते। वे अमर और अविनाशी हैं। आठ सिध्द्वियां व नौ निधियां उनके चरणों की दासियां हैं।

ऐसा सतगुरु राया।
चारि पदारथ पाया।।

वे सतगुरु ऐसे मालिक हैं कि उनके प्रति समर्पित होने पर लोगों को जीते जी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारोंं पदार्थों की प्राप्ति होती है।

अमी महा रस माता।
अमर अभै पद दाता।।

वे अमृत के महारस को पीकर सदा मस्त रहते हैं और शरण में आनेवालों को ज्ञान प्रदान कर अमर और अभय कर देते हैं।

सतगुरु त्रिभुवन तारे।
'दादू' पार उतारै।।

संत दादू दयाल जी कहते हैं कि सतगुरु तीनों लोकों का उध्द्वार करनेवाले हैं, और उन्हीं की कृपा से मैं भी संसार सागर से पार उतर जाऊँगा।

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